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अफ़ग़ानिस्तान में किस हाल में रह रहे हैं हिंदू और सिख….

बीती 15 अगस्त को अफ़गानिस्तान में तालिबान को सत्ता में आए एक साल पूरा हो गया। ऐसे में राजधानी क़ाबुल सहित दूसरे इलाकों में किसी बड़े चरमपंथी धमाके या हमले को लेकर तनाव का माहौल बना हुआ है। लड़ाई ख़त्म हो गई लेकिन ऐसा लगता है कि इस देश में शांति नहीं है। इसी माहौल में हम लोग क़ाबुल के केंद्र में स्थित असामाई मंदिर पहुँचे। हमलों के डर से मंदिर में पूजा भी बहुत चुपचाप तरीक़े से होती है, इसे रिकॉर्ड करने की इजाज़त नहीं है, ताकि पूजा के बारे में पता चलने पर कोई चरमपंथी हमला ना हो जाए। एक वक्त अफ़गानिस्तान के खोस्त इलाके में मसाले का काम करने वाले हरजीत कहते हैं, “बैठे हैं हम माता रानी के चरणों में। उनकी सेवा कर रहे हैं. ये नहीं कि हम डर जाएं।

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हम माता मंदिर नहीं छोड़ेंगे.”वो कहते हैं, “(अफ़ग़ानिस्तान में) 10-11 हिंदू बचे हैं। गिनती के सात-आठ घर. एक मेरा घर है. एक राजाराम हैं, गज़नी में. एक दो घर कार्ती परवान में हैं। एक दो घर शेर बाज़ार में हैं। वो ग़रीब लोग हैं। ऐसे लोग भी हैं जो पासपोर्ट क्या है जानते भी नहीं। लोग पढ़े लिखे नहीं हैं। शुरू से यहां बड़े हो गए हैं। “साल 2018 में जलालाबाद में एक आत्मघाती हमले में और साल 2020 में काबुल में गुरुद्वारे पर चरमपंथी हमले में कई सिख मारे गए थे। इस साल जून में काबुल के कार्ती परवान गुरुद्वारे में हमले में एक सिख की मौत हो गई। बिंदिया कौर का सारा परिवार भारत में है।

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यहां उनका पूरा दिन घर का काम और मंदिर की सेवा करने में बीतता है। वो कहती हैं, “पहले मंदिर में 20 परिवार यहां रहते थे। डर के मारे कुछ कुछ ऐसे जाने लगे। फिर पांच परिवार रह गए यहां. फिर वो भी डर गए वो भी चले गए। फिर सारे आहिस्ता आहिस्ता छोड़कर चले गए. पहले बहुत बिगड़ा था। धमाके हो रहे थे। पिछले साल तालिबान लोग आ गए, फिर ये लोग भी चले गए.तालिबान सड़कों पर भारी-भारी गाड़ियों पर बंदूक लिए गश्त लगाते नज़र आते हैं। अफ़गानिस्तान दशकों से युद्ध, बम धमाकों, टार्गेटेड किलिंग के साए में जी रहा है।

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अंतरराष्ट्रीय फंडिंग रुक जाने से, पिछले कुछ महीनों में सूखे और भूकंप की स्थिति से, अर्थव्यवस्था की बुरी हालत के कारण लोग भीख तक मांगने को मजबूर हैं और लोगों के लिए खाने, दवाइयों का इंतज़ाम करना मुश्किल हो रहा है। जिसके लिए संभव है, वो ये देश छोड़कर जा रहा है। डर जताया जा रहा है कि जैसे बामियान में बौद्ध नहीं रहे, या फिर हेरात या पश्चिमी अफ़गानिस्तान से ईसाई चले गए, वो दिन दूर नहीं जब एक दिन इतिहासकार कहें कि एक वक्त था जब अफ़गानिस्तान में हिंदू और सिख रहा करते थे।

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